नई दिल्ली। हर भारतीय तक पहुंचने वाले खाद्य पदार्थ सुरक्षित हों, यह जिम्मेदारी देश के खाद्य नियामक भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) की है। वैसे ही जैसे देश के बैंकिंग सिस्टम को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी भारतीय रिजर्व बैंक की है और कैपिटल मार्केट को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सेबी की। लेकिन क्या एफएसएसएआई अपने काम को सही तरीके से अंजाम दे रहा है?
चाहे नेस्ले के बेबी फूड में यूरोपीय देशों की तुलना में भारतीय उत्पाद में अधिक शुगर कंटेट का मामला हो या मसालों में कैंसर पैदा करने वाले केमिकल की मौजूदगी, दोनों मामलों में यह साफ है कि लापरवाही हुई है। इससे पहले भी हेल्थ एक्सपर्ट FSSAI के काम करने के रवैये पर सवाल उठाते रहे हैं।
अधिक शुगर, सोडियम और फैट वाले पैकेज्ड फूड उत्पादों पर फ्रंट ऑफ पैक लेबलिंग (एफओपीएल) का मसौदा बीते करीब दो साल से FSSAI के पास लंबित है। इसे अब तक लागू नहीं किया गया है, जबकि इसकी तैयारी बीते एक दशक से चल रही थी।
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एफएसएसएआई का रवैया पब्लिक हेल्थ विशेषज्ञों की चिंता बढ़ा रहा है। उनके मुताबिक, भारत में पैकेज़्ड और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड एवं बेवरेजेस का उपयोग हर आय वर्ग और ग्रामीण एवं शहरी, हर इलाके में बढ़ा है। खानपान में यह बड़ा परिवर्तन भारत में डायबिटीज और कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों के बढ़ने का मुख्य कारण है।
इससे पहले, FSSAI ने एक रेयर डिजीज का हवाला देकर एक बेबीफूड को आईएमएस एक्ट 2003 से छूट दे दी थी। आईएमएस एक्ट किसी भी बेबी फूड की मार्केटिंग पर रोक लगाता है। एफएसएसएआई ने आयात की मंजूरी देने के नाम पर यह छूट दी थी, जबकि इसके आयात की मंजूरी से आईएमएस एक्ट का कोई लेना-देना ही नहीं था। इस निर्णय पर हेल्थ विशेषज्ञों के विरोध के चलते डेढ़ साल बाद एफएसएसएआई को अपना फैसला बदलना पड़ा।
एफएसएसएआई ने किसी पैकेज्ड फूड को शुगर फ्री, लो शुगर, लो कैलेारी, कैलोरी फ्री, कलेस्ट्रॉल फ्री या लो कलेक्ट्रॉल घोषित करने के लिए तो मानक तय कर रखे हैं, लेकिन नियामक आज तक हाई शुगर, हाई सोडियम या हाई फैट के मानक तय नहीं कर पाया है। यानी फूड कंपनियां अपने उत्पाद को हेल्दी तो आसानी से घोषित कर सकती हैं, लेकिन अपने अनहेल्दी उत्पाद को उन्हें अनहेल्दी घोषित करने की जरूरत नहीं है।
ऊपर बताए गए वाकये बानगी भर हैं, लेकिन यह बताने के लिए काफी हैं कि बतौर नियामक एफएसएसएआई की भूमिका कितनी लचर रही है। एफएसएसएआई वैसे मामलाें में ही कार्रवाई करता नजर आता है, जो चर्चा में आ जाए। जबकि उसका काम लगातार जांच करते हुए खाद्य पदार्थों में की जा रही मिलावट, केमिकल आदि को पकड़ना है।
उपभोक्ता अधिकारों पर काम करने वाली संस्था कंज्यूमर वॉयस के सीईओ आशिम सान्याल ने जागरण प्राइम से कहा, “खाद्य नियामक को किसी घटना के बाद रिएक्टिव होने के बजाय प्रोएक्टिव होने की जरूरत है। नियामक द्वारा निगरानी नियमित रूप से या व्यवस्थित दृष्टिकोण के साथ नहीं की जा रही है।”
सान्याल ने कहा कि कुछ साल पहले यूरोपीय संघ ने हमारे मसालों में कीटनाशकों के अवशेष मिलने पर चिंता जताई थी। इसके बाद एफएसएसएआई को सभी मानकों पर निगरानी परीक्षण करना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।
क्यों हुई थी FSSAI की स्थापना?
एफएसएसएआई को अमेरिकी की नियामक फूड एंड ड्रग रेगुलेटर की तर्ज पर बनाया गया था। साल 2006 से पहले खाद्य पदार्थों से जुड़े आधे दर्जन से अधिक कानून और आदेश थे, जो अलग-अलग मंत्रालयों के अधीन आते थे। इसमें खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954, फल उत्पाद आदेश, 1955, मांस खाद्य उत्पाद आदेश, 1973, वनस्पति तेल उत्पाद (नियंत्रण) आदेश, 1947, खाद्य तेल पैकेजिंग (विनियमन) आदेश 1988 एवं दूध और दूध उत्पाद आदेश, 1992 शामिल थे।
साल 2006 में खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के जरिए खाद्य पदार्थों के नियमन के लिए सिंगल अथॉरिटी बना दी गई। हालांकि, रूल-रेगुलेशन बनने और एफएसएसएआई की स्थापना होकर इसके प्रभावी होते-होते साल 2011 आ गया।
खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम में कहा गया है कि एफएसएसएआई खाद्य उत्पादों की मैन्युफैक्चरिंग, स्टोरेज, डिस्ट्रीब्यूशन, बिक्री एवं आयात से जुड़े विज्ञान आधारित स्टैंडर्ड निर्धारित करेगा और उनका नियमन भी करेगा, ताकि लोगों को अच्छा और सुरक्षित भोजन उपलब्ध हो।
हालांकि, FSSAI ने एक सख्त नियामक व्यवस्था अपनाने की जगह सेल्फ-कंप्लायंस का रास्ता अपनाया। विशेषज्ञों का कहना है कि यहीं से इस फूड रेगुलेटर के पतन की शुरुआत हो गई। एफएसएसएआई कभी उस तरह की क्षमता विकसित ही नहीं कर पाया, जैसी भारत जैसे देश में फूड रेगुलेटर की होनी चाहिए।
स्टेकहोल्डर कंसल्टेशन के नाम पर धीरे-धीरे फूड इंडस्ट्री के प्रतिनिधियों का उन रेगुलेशन के निर्माण में हस्तक्षेप होने लगा, जिसे फूड इंडस्ट्री के लिए बनाया जा रहा था। स्टेकहोल्डर्स ग्रुप में धीरे-धीरे फूड इंडस्ट्री के प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ने लगी और अन्य स्टेकहोल्डर्स की संख्या कम हो गई।
कंज्यूमर राइट्स एक्टिविस्ट और FSSAI की एफओपीएल स्टेकहोल्डर्स ग्रुप के सदस्य रह चुके जॉर्ज चेरियन ने पॉलिसी सर्कल में प्रकाशित लेख में FSSAI में इंडस्ट्री के दबदबे की जानकारी दी है। चेरियन बताते हैं कि एफओपीएल को लेकर हुई सात बैठकों में FSSAI के अधिकारियों के अलावा औसतन 28-30 स्टेकहोल्डर्स ने भाग लिया। इनमें से उपभोक्ता संगठनों के प्रतिनिधि मात्र 4-5 थे। शेष 25 प्रतिनिधि प्रमुख उद्योग संघों और राष्ट्रीय/बहुराष्ट्रीय फूड कंपनियों के थे।
पोषण पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन, न्यूट्रिशन एडवोकेसी इन पब्लिक इंटरेस्ट (नापी) के समन्वयक डॉ. अरुण गुप्ता कहते हैं, शक्ति का यह असंतुलन एफएसएसएआई के निर्णयों में भी दिखता है, जिसके ज्यादातर फैसले अकसर इंडस्ट्री के पक्ष में झुके हुए होते हैं।
जॉर्ज चेरियन अपनी रिपोर्ट में दो साल पुराने के एक मामले का उल्लेख करते हुए कहते हैं, मार्च 2022 के अंतिम सप्ताह में एफएसएसएआई ने सभी फूड बिजनेस ऑपरेटर्स को निर्देश दिए कि अपने उत्पादों में ट्रांस फैट का परीक्षण कराएं और यदि उत्पादों में प्रति 100 ग्राम में 0.2 ग्राम से कम ट्रांस फैट है तो उस पर ट्रांस-फैट मुक्त लोगो का उपयोग करें। यह सलाह बेतुकी थी, क्योंकि 1 जनवरी 2022 से सभी खाद्य पदार्थों, तेलों और वसा में ट्रांस-फैट पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
चेरियन के मुताबिक, एफएसएसएआई और राज्य खाद्य सुरक्षा आयुक्तों को जब ट्रांस फैट पर पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए था, जब वह फूड बिजनेस ऑपरेटर्स को खुद से ट्रांस-फैट मुक्त लोगो लगाने की सलाह दे रहे थे। इससे पता चलता है कि रेगुलेटर कितना कमजोर है।
संसाधनों और मैनपॉवर की कमी ने भी FSSAI को किया कमजोर
FSSAI की रही-सही कसर बजट, मैनपॉवर और संसाधनों की कमी ने पूरी कर दी। दिसंबर 2022 में संसद में पेश पब्लिक अकाउंट कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक, विभिन्न राज्यों में नामित अधिकारी (डीओ) और खाद्य सुरक्षा अधिकारी (एफएसओ), दोनों स्तरों पर कर्मचारियों की गंभीर कमी है। नामित अधिकारियों के स्वीकृत 855 पदों में से 199 पद, जबकि और खाद्य सुरक्षा अधिकारियों (एफएसओ) के 4029 पदों में से 1492 पद खाली पड़े हैं। मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान में नामित अधिकारी (डीओ) के क्रमश: 55, 42, 34 पद होने के बावजूद वहां एक भी फुल टाइम डीओ नहीं है और पार्ट टाइम डीओ से काम चलाया जा रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, कर्मचारियों की संख्या में कमी और खराब इन्फ्रास्ट्रक्चर का असर कम सैंपल जांच और कार्रवाई के रूप में सामने आता है। 2022-23 में देश में विश्लेषण किए गए 1,72,687 नमूनों में से 44,421 खराब पाए गए। खराब खाने को लेकर अब तक 38,053 दीवानी और 4,817 आपराधिक मामले शुरू किए गए, लेकिन इनमें से केवल 27,053 और 1,133 में दोषी ठहराया जा सका।
सान्याल कहते हैं, चूंकि खाद्य सुरक्षा राज्य का विषय है इसलिए FSSAI को खाद्य उत्पादों की निगरानी के लिए राज्यों को लगातार निर्देश जारी करना चाहिए। साथ ही प्रयोगशाला परीक्षण सुविधाओं को मजबूत भी करना चाहिए। निगरानी परीक्षण में विफल रहने वाले ब्रांडों पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए और वेबसाइट पर उनका नाम सार्वजनिक रूप से घोषित कर उन्हें शर्मिंदा करना चाहिए।
फूड इंडस्ट्री के दबाव में काम कर रहे और इंडस्ट्री के हितों की रक्षा में लगे नियामक को उसके उपभोक्ता संरक्षण के मैंडेट के बारे में याद दिलाने की जरूरत है। उन्हें केवल तभी दोषमुक्त किया जा सकता है यदि वे फ्रंट ऑफ पैक लेबलिंग पर उपभोक्ताओं को चेतावनी देते हैं और उपभोक्ता उसकी अनदेखी करते हुए अपने विकल्पों का चुनाव करते हैं।
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